Anjuman Prakashan
Joined - September 2024
यह पुस्तक वीर शिरोमणि सावरकर जी की "स्वातंत्रय समर" पुस्तक में उल्लेखित ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित है ! इसकी अंतर्कथा को लोक भाषा में छंदोबद्ध करके सुबोध भाव अलंकारों के साथ सरल संगीतमय और गाने योग्य बना कर लिखा गया है !
बीच बीच में वीर रस पूर्ण और देश भक्ति से ओतप्रोत सारगर्भित प्रेरणादायक गाने योग्य कविताओं का भी संकलन किया है और संदर्भित कथा तथ्यों के सोपानों पर वीर सावरकर के मन्त्रमई ओजस्वी शब्दों का प्रयोग करके प्रभावशाली वातावरण पाठकों हेतु बनाने का प्रयत्न किया है !
लेखक यह पुस्तक उन बलिदानी हुतात्माओं को जिन्होनें 1857 के मुक्ति संग्राम में अंग्रेजों से लड़ते हुए अपने प्राणों की आहुति दी थी आजादी के 75 वे अमृतकाल में श्रद्धांजलि रूप में अर्पित करते हैं !
स्वतंत्रता संग्राम आरम्भ हो एक बार, पिता से पुत्र को पहुंचे बार बार !!
भले हो पराजय यदा कदा, पर अंततः मिले विजय हर बार !
यह संगीतमय वीर गान लोक स्मृति में और लोक चेतना की जिव्ह्या पर अमिट हो कर पीढ़ी दर पीढ़ी भविष्य में भावी संतानों को वीरता की व्याख्या देता रहे ऐसी मेरी कामना है ! इस परिश्रम में कितना सफल हुआ ये सुधि पाठक निर्णय देंगे !
आपका - पूरण सिंह तंवर
भारत का पूर्व सैनिक - जाट रेजिमेंट
यह पुस्तक वीर शिरोमणि सावरकर जी की "स्वातंत्रय समर" पुस्तक में उल्लेखित ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित है ! इसकी अंतर्कथा को लोक भाषा में छंदोबद्ध करके सुबोध भाव अलंकारों के साथ सरल संगीतमय और गाने योग्य बना कर लिखा गया है !
बीच बीच में वीर रस पूर्ण और देश भक्ति से ओतप्रोत सारगर्भित प्रेरणादायक गाने योग्य कविताओं का भी संकलन किया है और संदर्भित कथा तथ्यों के सोपानों पर वीर सावरकर के मन्त्रमई ओजस्वी शब्दों का प्रयोग करके प्रभावशाली वातावरण पाठकों हेतु बनाने का प्रयत्न किया है !
लेखक यह पुस्तक उन बलिदानी हुतात्माओं को जिन्होनें 1857 के मुक्ति संग्राम में अंग्रेजों से लड़ते हुए अपने प्राणों की आहुति दी थी आजादी के 75 वे अमृतकाल में श्रद्धांजलि रूप में अर्पित करते हैं !
स्वतंत्रता संग्राम आरम्भ हो एक बार, पिता से पुत्र को पहुंचे बार बार !!
भले हो पराजय यदा कदा, पर अंततः मिले विजय हर बार !
यह संगीतमय वीर गान लोक स्मृति में और लोक चेतना की जिव्ह्या पर अमिट हो कर पीढ़ी दर पीढ़ी भविष्य में भावी संतानों को वीरता की व्याख्या देता रहे ऐसी मेरी कामना है ! इस परिश्रम में कितना सफल हुआ ये सुधि पाठक निर्णय देंगे !
आपका - पूरण सिंह तंवर
भारत का पूर्व सैनिक - जाट रेजिमेंट
"लेखक परिचय :
पूरण सिंह का जन्म साल 1950 में उस समय के पंजाब प्रान्त के पलवल क्षेत्र के गांव दीघोट में हुआ जो अब हरियाणा में है ! गांव के किसान परिवार में जन्मा अपने 6 बहन भाइयों में तीसरे नंबर का पुत्र उस समय गांव के ही सरकारी स्कूल में पढ़ते हुए देश भक्ति की क ख ग सीख गया था ! सदियों की गुलामी झेल कर देश उस समय आजादी की ताज़ा - ताज़ा साँसें ले रहा था इसलिए देश भर में उमंग और देश भक्ति का वातावरण था ! सरकारी स्कूलों में होने वाली बालसभाओं और गोष्ठियों में हिस्सा लेते लेते देशभक्ति गीत तथा कविताएं लिखना पूरण सिंह का शौक बन गया ! 15 साल की अल्पायु में पिताजी के देहांत के बाद घर में कठिनाइयों के दौर के चलते घर के हालात दयनीय हुए तो उनके बाल मन ने विचारों के गुबार को दुखी हो कर कागज पर लिखने की कोशिश की तो शब्दों ने एक गीत का रूप ले लिया जिसे यहाँ उनके परिचय के साथ उद्धत करना उचित होगा !
उलझ गए जीवन वीणा के मोटे - पतले तार !
सरगम रूठ गया दिल का ना उठे मधुर झंकार !!
कब से भटक रहा हूँ में इस दारुण कंटक वन में !
खोया आज किनारा फिर भी किसकी आशा मन में !!
दोष नहीं पतझड़ का कोई छलती मुझे बहार !
उलझ गए जीवन वीणा के मोटे पतले तार !!
विरह निशा के घोर तमस में कब तक दीप जलाऊं !
आस - निराश की पगडण्डी पर कैसे में चल पाऊं !!
भग्न हृदय किसको दिखलाऊँ किस से करूँ पुकार !
उलझ गए जीवन वीणा के मोटे पतले तार !!
तोड़ रहे दम गीत अधूरे साज बिना क्या गाऊं !
इन प्राणों की विकत वेदना कैसे में सह पाऊं !!
मांझी ही जो नाव डुबोए कौन लगाए पार !
उलझ गए जीवन वीणा के मोटे पतले तार !!
कोमल पुष्प मधुर भावों के चुन कर मन उपवन से !
प्रियवर की चिर प्रतीक्षा में बैठा लिए जतन से !!
मृत्यु छीन नहीं सकती है जीवन का अभिसार !
उलझ गए जीवन वीणा के मोटे पतले तार !!
ऐसी दर्द भरी गीत ग़ज़ल लिखते हुए इनका मन दुनियावी माया मोह से ऐसा विरक्त हुआ की घर छोड़ अरावली की पहाड़ियों में भटकने लगे और संयोग से वहीँ भटकते हुए एक सन्यासी गुरु इन्हें मिले जिन्होंने दो साल तक अपनी शरण में इनको रखते हुए शास्त्रों का ज्ञान दिया, योग अभ्यास करा कर बलशाली बनाया और इनकी चेतना को देश भक्ति और ईश्वर भक्ति की और फिर से मोड़ दिया ! ऐसे महापुरुष की प्रेरणा से सेना में भर्ती हो कर सन 1971 में हुए भारत पाकिस्तान के युद्ध का हिस्सा भी रहे !
सेना से अवकास ले कर पैतृक गांव में ही पठन - पाठन - लेखन - गायन - कला इत्यादि में लगे रहे और पत्नी भी बिना इन्हें व्यस्त किये स्वयं ही घर के कार्यों की पटरी बिठाती रहीं और उन्ही के अमूल्य सहयोग से बच्चे भी पढ़ लिख कर अपने पैरों पर खड़े हो गए ! इनका बड़ा बेटा आज बहुराष्ट्रीय कंपनी में वरिष्ठ पद पर कार्य कर रहा है तो छोटा बेटा डाक्टर बन कर लोगों की सेवा में रत हैं !
लेखक का मानना है की विदेशी और वामपंथी चश्मे से लिखा हुआ इतिहास जो की राजनीतिक कुचक्रों की वजह से हमेशा तोडा मरोड़ा गया और आधा अधूरा ही देश की पीढ़ियों को परोसा गया उसको यदि सत्यता के साथ संगीतबद्ध करके पेश किया जायेगा तो पीढ़ियों तक लोक चेतना में बैठा रहेगा और फिर कोई उसको सदियों तक तोड़ मरोड़ नहीं सकेगा ! इसी उद्देश्य से वो 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के संदर्भों को अपनी इस पुस्तक १८५७ का मुक्ति संग्राम के माध्यम से पाठकों के सम्मुख गीत - संगीतमय रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं !"
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